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अब जब इनमे से कोई भी गुण निश्चित नहीं है तो मनुष्य का जीवन बड़ी अनिश्चित दिशा में चला गया है। लेकिन अगर मनुष्य थोड़ी सी भी समझदारी दिखाए, अगर थोड़ी सी बुद्धि से जीने लगे, थोड़ी सी विचारशीलता के साथ, थोड़ी सी अपनी आँखें खोल ले, तो सही आहार का निर्णय लेना बिलकुल कठिन नहीं होगा. यह बहुत आसन है; इससे आसन कुछ हो भी नहीं सकता। सही आहार को समझने के लिए हम इसे दो हिस्सों में बाँट सकते हैं।
पहली बात: मनुष्य क्या खाए और क्या न खाए?
मनुष्य का शरीर रासायनिक तत्वों से बना है, शरीर की पूरी प्रक्रिया रासायनिक है। अगर मनुष्य के शरीर में शराब डाल दी जाये, तो उसका शरीर पूरी तरह उस रसायन के प्रभाव में आ जायेगा; यह नशे के प्रभाव में आ कर बेहोश हो जायेगा। कितना भी स्वस्थ, कितना भी शांत मनुष्य क्यों न हो, नशे का रसायन उसके शरीर को प्रभावित करेगा। कोई मनुष्य कितना भी पुण्यात्मा क्यों न हो, अगर उसे जहर दिया जाये तो वह मारा जायेगा।
कोई भी भोजन जो मनुष्य को किसी तरह की बेहोशी, उत्तेजना, चरम अवस्था, या किसी भी तरह की अशांति में ले जाए, हानिकारक है। और सबसे गहरी, परम हानि तब होती है जब ये चीजें नाभि तक पहुंचने लगती हैं।
शायद तुम नहीं जानते की पूरी दुनिया की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों में शरीर को स्वस्थ करने के लिए गीली मिट्टी, शाकाहारी भोजन, हलके भोजन, गीली पट्टीयों और बड़े टब में स्नान का प्रयोग किया जाता है। लेकिन अब तक कोई प्राकृतिक चिकित्सक यह नहीं समझ पाया है कि गीली पट्टीयों, गीली मिट्टी, टब में स्नान का जो इतना लाभ मिलता है, वह इनके विशेष गुणों के कारण नहीं बल्कि नाभि केंद्र पर इनके प्रभाव के कारण है। नाभि केंद्र पुरे शरीर पर प्रभाव डालता है। ये सारी चीजें जैसे मिट्टी, पानी, टब स्नान नाभि केंद्र की निष्क्रिय ऊर्जा पर प्रभाव डालती हैं, और जब ये उर्जा सक्रिय होनी शुरु होती है तो मनुष्य स्वस्थ होने लगता है।
लेकिन प्राकृतिक चिकित्सा अभी यह बात नहीं जान पाई है। प्राकृतिक चिकित्सक सोचते हैं कि शायद ये स्वास्थ्य लाभ गीली मिट्टी, टब में स्नान, या गीली पट्टीयों को पेट पर रखने के कारण हैं। इन सब से भी लाभ होता है, परन्तु वास्तविक लाभ नाभि केंद्र कि निष्क्रिय ऊर्जा के सक्रिय होने से होता है।
अगर नाभि के साथ गलत व्यवहार किया जाये, अगर गलत आहार, गलत भोजन किया जाये, तो धीरे धीरे नाभि केंद्र निष्क्रिय पड़ जाता है और इसकी उर्जा घटने लगती है। धीरे-धीरे नाभि केंद्र सुस्त पड़ने लगता है, आखिर में यह लगभग सो जाता है। तब हम इसे एक केंद्र की तरह देखना भी बंद कर देते हैं।
तब हमें सिर्फ दो केंद्र दिखाई पड़ते हैं: एक मस्तिष्क जहां निरंतर विचार चलते रहते हैं, और थोडा बहुत हृदय जहां भावों का प्रवाह रहता है। इससे गहराई में हमारा किसी चीज से संपर्क नहीं बन पाता। तो जितना हल्का खाना होगा, उतना वह शरीर में कम भारीपन बनाएगा, और अंतर यात्रा शुरू करने के लिए वह ज्यादा मूल्यवान और महत्वपूर्ण बन जायेगा।
सही आहार के बारे में ये याद रखना चाहिए की ये उत्तेजना न पैदा करे, ये नशीला न हो, और भारी न लगे। सही आहार लेने के बाद आपको भारीपन और तंद्रा महसूस नहीं होनी चाहिए। लेकिन शायद हम सभी भोजन के बाद भारीपन और तंद्रा महसूस करते हैं, तब हमें जानना चाहिए कि हम सही भोजन नहीं कर रहे हैं।
कुछ लोग इसलिए बीमार पड़ते हैं कि उन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता और कुछ ज्यादा खाने के कारण रोगग्रस्त रहते हैं। कुछ लोग भूख से मरते हैं तो कुछ जरुरत से ज्यादा खाने से। और जरुरत से ज्यादा खाने के कारण मरने वालों की संख्या हमेशा भूख से मरने वालों से ज्यादा रही है। भूख से बड़े कम लोग मरते हैं। अगर एक आदमी भूखा भी रहना चाहे तो 3 महीने से पहले उसके भूख से मरने की कोई सम्भावना नहीं है। कोई भी व्यक्ति 3 महीने तक भूखा रह सकता है। लेकिन अगर कोई 3 महीने तक जरुरत से ज्यादा खाना खाता रहे तो उसके बचने की कोई संभावना नहीं है।
भोजन के प्रति गलत नजरिये हमारे लिए खतरनाक बनते जा रहे हैं। ये बहुत महंगे साबित हो रहे हैं। ये हमें ऐसी स्थिति में ले जा चुके हैं जहां हम बस किसी तरह जीवित हैं। हमारा भोजन शरीर को स्वास्थ्य देने की बजाय बीमारियां देता जान पड़ता है। यह ऐसा हुआ जैसे सुबह उगता सूरज अन्धकार पैदा करे। यह भी उतनी ही आश्चर्यजनक और अजीब बात होगी। परन्तु दुनिया के सभी चिकित्सकों की यह आम राय है कि मनुष्य की ज्यादातर बीमारियां गलत खानपान के कारण हैं।
तो पहली बात यह कि हर मनुष्य अपने भोजन के प्रति जागरूक और सचेत हो। एक मनुष्य के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वह अनपे भोजन के प्रति जागरूक रहे, कि वह क्या खा रहा है, कितना खा रहा है, और इसका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अगर कोई व्यक्ति जागरूकता से कुछ महीने प्रयोग करे, तो वह निश्चित रूप से पता लगा लेगा कि कौन सा भोजन उसे स्थिरता, शांति और स्वास्थ्य प्रदान करता है। इसमें कोई मुश्किल नहीं है, परन्तु यदि हम अपने भोजन के प्रति जागरूक नहीं हैं, तो हम कभी अपने लिए सही भोजन नहीं तलाश पाएंगे|
भोजन कैसे करें
दूसरी बात, भोजन के संबंध में, जो हम खाते हैं, उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम उसे किस भाव-दशा में खाते हैं। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। आप क्या खाते हैं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह महत्वपूर्ण है कि आप किस भाव-दशा में खाते हैं। आप आनंदित खाते हैं, या दुखी, उदास और चिंता से भरे हुए खाते हैं। अगर आप चिंता से खा रहे हैं, तो श्रेष्ठतम भोजन के परिणाम भी पाय़जनस होंगे, जहरीले होंगे। और अगर आप आनंद से खा रहे हैं, तो कई बार संभावना भी है कि जहर भी आप पर पूरे परिणाम न ला पाए। इसकी बहुत संभावना है। आप कैसे खाते हैं, किस चित्त-दशा में?
हम तो चिंता में ही चौबीस घंटे जीते हैं। तो हम जो भोजन करते होंगे, वह कैसे पच जाता है यह मिरेकल है, यह बिलकुल चमत्कार है। यह भगवान कैसे करता है, हमारे बावजूद करता है यह। हमारी कोई इच्छा उसके पचने की नहीं है। यह कैसे पच जाता है, यह बिलकुल आश्चर्य है! और हम कैसे जिंदा रह लेते हैं, यह भी एक आश्चर्य है! भाव-दशा--आनंदपूर्ण, प्रसादपूर्ण निश्चित ही होनी चाहिए।
लेकिन हमारे घरों में हमारे भोजन की जो टेबल है या हमारा चौका जो है, वह सबसे ज्यादा विषादपूर्ण अवस्था में है। पत्नी दिन भर प्रतीक्षा करती है कि पति कब घर खाने आ जाए। चौबीस घंटे का जो भी रोग और बीमारी इकट्ठी हो गई है, वह पति की थाली पर ही उसकी निकलती है। और उसे पता नहीं कि वह दुश्मन का काम कर रही है। उसे पता नहीं, वह जहर डाल रही है थाली में।
और पति भी घबड़ाया हुआ, दिन भर की चिंता से भरा हुआ थाली पर किसी तरह भोजन को पेट में डाल कर हट जाता है! उसे पता नहीं है कि एक अत्यंत प्रार्थनापूर्ण कृत्य था, जो उसने इतनी जल्दी में किया है और भाग खड़ा हुआ है। यह कोई ऐसा कृत्य नहीं था कि जल्दी में किया जाए। यह उसी तरह किए जाने योग्य था, जैसे कोई मंदिर में प्रवेश करता है, जैसे कोई प्रार्थना करने बैठता है, जैसे कोई वीणा बजाने बैठता है। जैसे कोई किसी को प्रेम करता है और उसे एक गीत सुनाता है।
यह उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था। वह शरीर के लिए भोजन पहुंचा रहा था। यह अत्यंत आनंद की भाव-दशा में ही पहुंचाया जाना चाहिए। यह एक प्रेमपूर्ण और प्रार्थनापूर्ण कृत्य होना चाहिए।
जितने आनंद की, जितने निश्चिंत और जितने उल्लास से भरी भाव-दशा में कोई भोजन ले सकता है, उतना ही उसका भोजन सम्यक होता चला जाता है।
हिंसक भोजन यही नहीं है कि कोई आदमी मांसाहार करता हो। हिंसक भोजन यह भी है कि कोई आदमी क्रोध से आहार करता हो। ये दोनों ही वायलेंट हैं, ये दोनों ही हिंसक हैं। क्रोध से भोजन करते वक्त, दुख में, चिंता में भोजन करते वक्त भी आदमी हिंसक आहार ही कर रहा है। क्योंकि उसे इस बात का पता ही नहीं है कि वह जब किसी और का मांस लाकर खा लेता है, तब तो हिंसक होता ही है, लेकिन जब क्रोध और चिंता में उसका अपना मांस भीतर जलता हो, तब वह जो भोजन कर रहा है, वह भी अहिंसक नहीं हो सकता है। वहां भी हिंसा मौजूद है।
सम्यक आहार का दूसरा हिस्सा है कि आप अत्यंत शांत, अत्यंत आनंदपूर्ण अवस्था में भोजन करें। और अगर ऐसी अवस्था न मिल पाए, तो उचित है कि थोड़ी देर भूखे रह जाएं, उस अवस्था की प्रतीक्षा करें। जब मन पूरा तैयार हो, तभी भोजन पर उपस्थित होना जरूरी है। कितनी देर मन तैयार नहीं होगा? मन के तैयार होने का अगर खयाल हो, तो एक दिन मन भूखा रहेगा, कितनी देर भूखा रहेगा? मन को तैयार होना पड़ेगा। मन तैयार हो जाता है, लेकिन हमने कभी उसकी फिकर नहीं की है।
हमने भोजन डाल लेने को बिलकुल मैकेनिकल, एक यांत्रिक क्रिया बना रखी है कि शरीर में भोजन डाल देना है और उठ जाना है। वह कोई साइकोलॉजिकल प्रोसेस, वह कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं रही है। यह घातक बात है।
शरीर के तल पर सम्यक आहार स्वास्थ्यपूर्ण हो, अनुत्तेजनापूर्ण हो, अहिंसक हो और चित्त के आधार पर आनंदपूर्ण चित्त की दशा हो, प्रसादपूर्ण मन हो, प्रसन्न हो, और आत्मा के तल पर कृतज्ञता का बोध हो, धन्यवाद का भाव हो। ये तीन बातें भोजन को सम्यक बनाती हैं।
मुझे भोजन उपलब्ध हुआ है, यह बहुत बड़ी धन्यता है। मुझे एक दिन और जीने को मिला है, यह बहुत बड़ा ग्रेटिट्यूड है। आज सुबह मैं फिर जीवित उठ आया हूं। आज फिर सूरज ने रोशनी की है। आज फिर चांद मुझे देखने को मिलेगा। आज मैं फिर जीवित हूं। जरूरी नहीं था कि मैं आज जीवित होता। आज मैं कब्र में भी हो सकता था, लेकिन आज मुझे फिर जीवन मिला है। और मेरे द्वारा कुछ भी कमाई नहीं की गई है, जीवन पाने को। जीवन मुझे मुफ्त में मिला है। इसके लिए कम से कम धन्यवाद का, मन में अनुग्रह का, ग्रेटिट्यूड का कोई भाव होना चाहिए।
भोजन हम कर रहे हैं, पानी हम पी रहे हैं, श्वास हम ले रहे हैं, इस सबके प्रति अनुग्रह का बोध होना चाहिए। समस्त जीवन के प्रति, समस्त जगत के प्रति, समस्त सृष्टि के प्रति, समस्त प्रकृति के प्रति, परमात्मा के प्रति एक अनुग्रह का बोध होना चाहिए कि मुझे एक दिन और जीवन का मिला है। मुझे एक दिन और भोजन मिला है। मैंने एक दिन और सूरज देखा। मैंने आज और फूल खिले देखे। आज मैं और जीवित था।
यह जो भाव है, यह जो कृतज्ञता का भाव है, वह समस्त जीवन के साथ संयुक्त होना चाहिए। आहार के साथ तो बहुत विशेष रूप से। तो ही आहार सम्यक हो पाता है।
हिंदुओं ने अन्न को ब्रह्म कहा है। जिन्होंने अन्न को ब्रह्म कहा है उन्होंने जरूर स्वाद लिया होगा। उन्होंने तुम जैसे ही भोजन न किया होगा। वे बड़े होशियार लोग रहे होंगे, बड़े कुशल रहे होंगे। कोई गहरी कला उन्हें आती थी कि रोटी में उन्होंने ब्रह्म को देख लिया। दुनिया में किसी ने भी नहीं कहा है अन्नं ब्रह्म। कैसे लोग थे! रोटी में ब्रह्म! जरूर उन्होंने रोटी कुछ और ढंग से खाई होगी। उन्होंने भोजन को ध्यान बना लिया होगा। वे भागे-भागे नहीं थे। वे जब भोजन कर रहे थे तो भोजन ही कर रहे थे। उनकी पूरी प्राण-ऊर्जा भोजन में लीन थी। और तब जरूर रूखी रोटी में भी वह रस है जिसको ब्रह्म कहा है। तुम्हें भोजन करना आना चाहिए।
उपनिषद कहते हैं–“अन्नं ब्रह्म।’ और ब्रह्म के साथ कम से कम इतना तो सम्मान करो कि होशपूर्वक उसे अपने भीतर जाने दो।
इसलिए सारे धर्म कहते हैं, भोजन के पहले प्रार्थना करो, प्रभु को स्मरण करो। स्नान करो, ध्यान करो, फिर भोजन में जाओ, ताकि तुम जागे हुए रहो। जागे रहे तो जरूरत से ज्यादा खा न सकोगे। जागे रहे, तो जो खाओगे वह तृप्त करेगा। जागे रहे, तो जो खाओगे वह चबाया जाएगा, पचेगा, रक्त-मांस-मज्जा बनेगा, शरीर की जरूरत पूरी होगी। और भोजन शरीर की जरूरत है, मन की जरूरत नहीं।
जागे हुए भोजन करोगे तो तुम एक क्रांति घटते देखोगे कि धीरे-धीरे स्वाद से आकांक्षा उखड़ने लगी। स्वाद की जगह स्वास्थ्य पर आकांक्षा जमने लगी। स्वाद से ज्यादा मूल्यवान भोजन के प्राणदायी तत्व हो गये। तब तुम वही खाओगे, जो शरीर की निसर्गता में आवश्यक है, शरीर के स्वभाव की मांग है। तब तुम कृत्रिम से बचोगे, निसर्ग की तरफ मुड़ोगे।
सम्यक आहार
मनुष्य एक अकेली प्रजाति है जिसका आहार अनिश्चित है। अन्य सभी जानवरों का आहार निश्चित है। उनकी बुनियादी शारीरिक जरूरतें और उनका स्वभाव फैसला करता है के वे क्या खाते हैं और क्या नहीं; कब वे खाते हैं और कब उन्हें नहीं खाना होता है। किन्तु मनुष्य का व्यवहार बिलकुल अप्रत्याशित है, वह बिल्कुल अनिश्चितता में जीता है। न ही तो उसकी प्रकृति उसे बताती है कि उसे कब खाना चाहिए, न उसकी जागरूकता बताती है कि कितना खाना चाहिए, और न ही उसकी समझ फैसला कर पाती है कि उसे कब खाना बंद करना है|अब जब इनमे से कोई भी गुण निश्चित नहीं है तो मनुष्य का जीवन बड़ी अनिश्चित दिशा में चला गया है। लेकिन अगर मनुष्य थोड़ी सी भी समझदारी दिखाए, अगर थोड़ी सी बुद्धि से जीने लगे, थोड़ी सी विचारशीलता के साथ, थोड़ी सी अपनी आँखें खोल ले, तो सही आहार का निर्णय लेना बिलकुल कठिन नहीं होगा. यह बहुत आसन है; इससे आसन कुछ हो भी नहीं सकता। सही आहार को समझने के लिए हम इसे दो हिस्सों में बाँट सकते हैं।
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पहली बात: मनुष्य क्या खाए और क्या न खाए?
मनुष्य का शरीर रासायनिक तत्वों से बना है, शरीर की पूरी प्रक्रिया रासायनिक है। अगर मनुष्य के शरीर में शराब डाल दी जाये, तो उसका शरीर पूरी तरह उस रसायन के प्रभाव में आ जायेगा; यह नशे के प्रभाव में आ कर बेहोश हो जायेगा। कितना भी स्वस्थ, कितना भी शांत मनुष्य क्यों न हो, नशे का रसायन उसके शरीर को प्रभावित करेगा। कोई मनुष्य कितना भी पुण्यात्मा क्यों न हो, अगर उसे जहर दिया जाये तो वह मारा जायेगा।
कोई भी भोजन जो मनुष्य को किसी तरह की बेहोशी, उत्तेजना, चरम अवस्था, या किसी भी तरह की अशांति में ले जाए, हानिकारक है। और सबसे गहरी, परम हानि तब होती है जब ये चीजें नाभि तक पहुंचने लगती हैं।
शायद तुम नहीं जानते की पूरी दुनिया की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों में शरीर को स्वस्थ करने के लिए गीली मिट्टी, शाकाहारी भोजन, हलके भोजन, गीली पट्टीयों और बड़े टब में स्नान का प्रयोग किया जाता है। लेकिन अब तक कोई प्राकृतिक चिकित्सक यह नहीं समझ पाया है कि गीली पट्टीयों, गीली मिट्टी, टब में स्नान का जो इतना लाभ मिलता है, वह इनके विशेष गुणों के कारण नहीं बल्कि नाभि केंद्र पर इनके प्रभाव के कारण है। नाभि केंद्र पुरे शरीर पर प्रभाव डालता है। ये सारी चीजें जैसे मिट्टी, पानी, टब स्नान नाभि केंद्र की निष्क्रिय ऊर्जा पर प्रभाव डालती हैं, और जब ये उर्जा सक्रिय होनी शुरु होती है तो मनुष्य स्वस्थ होने लगता है।
लेकिन प्राकृतिक चिकित्सा अभी यह बात नहीं जान पाई है। प्राकृतिक चिकित्सक सोचते हैं कि शायद ये स्वास्थ्य लाभ गीली मिट्टी, टब में स्नान, या गीली पट्टीयों को पेट पर रखने के कारण हैं। इन सब से भी लाभ होता है, परन्तु वास्तविक लाभ नाभि केंद्र कि निष्क्रिय ऊर्जा के सक्रिय होने से होता है।
अगर नाभि के साथ गलत व्यवहार किया जाये, अगर गलत आहार, गलत भोजन किया जाये, तो धीरे धीरे नाभि केंद्र निष्क्रिय पड़ जाता है और इसकी उर्जा घटने लगती है। धीरे-धीरे नाभि केंद्र सुस्त पड़ने लगता है, आखिर में यह लगभग सो जाता है। तब हम इसे एक केंद्र की तरह देखना भी बंद कर देते हैं।
तब हमें सिर्फ दो केंद्र दिखाई पड़ते हैं: एक मस्तिष्क जहां निरंतर विचार चलते रहते हैं, और थोडा बहुत हृदय जहां भावों का प्रवाह रहता है। इससे गहराई में हमारा किसी चीज से संपर्क नहीं बन पाता। तो जितना हल्का खाना होगा, उतना वह शरीर में कम भारीपन बनाएगा, और अंतर यात्रा शुरू करने के लिए वह ज्यादा मूल्यवान और महत्वपूर्ण बन जायेगा।
सही आहार के बारे में ये याद रखना चाहिए की ये उत्तेजना न पैदा करे, ये नशीला न हो, और भारी न लगे। सही आहार लेने के बाद आपको भारीपन और तंद्रा महसूस नहीं होनी चाहिए। लेकिन शायद हम सभी भोजन के बाद भारीपन और तंद्रा महसूस करते हैं, तब हमें जानना चाहिए कि हम सही भोजन नहीं कर रहे हैं।
कुछ लोग इसलिए बीमार पड़ते हैं कि उन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता और कुछ ज्यादा खाने के कारण रोगग्रस्त रहते हैं। कुछ लोग भूख से मरते हैं तो कुछ जरुरत से ज्यादा खाने से। और जरुरत से ज्यादा खाने के कारण मरने वालों की संख्या हमेशा भूख से मरने वालों से ज्यादा रही है। भूख से बड़े कम लोग मरते हैं। अगर एक आदमी भूखा भी रहना चाहे तो 3 महीने से पहले उसके भूख से मरने की कोई सम्भावना नहीं है। कोई भी व्यक्ति 3 महीने तक भूखा रह सकता है। लेकिन अगर कोई 3 महीने तक जरुरत से ज्यादा खाना खाता रहे तो उसके बचने की कोई संभावना नहीं है।
भोजन के प्रति गलत नजरिये हमारे लिए खतरनाक बनते जा रहे हैं। ये बहुत महंगे साबित हो रहे हैं। ये हमें ऐसी स्थिति में ले जा चुके हैं जहां हम बस किसी तरह जीवित हैं। हमारा भोजन शरीर को स्वास्थ्य देने की बजाय बीमारियां देता जान पड़ता है। यह ऐसा हुआ जैसे सुबह उगता सूरज अन्धकार पैदा करे। यह भी उतनी ही आश्चर्यजनक और अजीब बात होगी। परन्तु दुनिया के सभी चिकित्सकों की यह आम राय है कि मनुष्य की ज्यादातर बीमारियां गलत खानपान के कारण हैं।
तो पहली बात यह कि हर मनुष्य अपने भोजन के प्रति जागरूक और सचेत हो। एक मनुष्य के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वह अनपे भोजन के प्रति जागरूक रहे, कि वह क्या खा रहा है, कितना खा रहा है, और इसका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अगर कोई व्यक्ति जागरूकता से कुछ महीने प्रयोग करे, तो वह निश्चित रूप से पता लगा लेगा कि कौन सा भोजन उसे स्थिरता, शांति और स्वास्थ्य प्रदान करता है। इसमें कोई मुश्किल नहीं है, परन्तु यदि हम अपने भोजन के प्रति जागरूक नहीं हैं, तो हम कभी अपने लिए सही भोजन नहीं तलाश पाएंगे|
भोजन कैसे करें
दूसरी बात, भोजन के संबंध में, जो हम खाते हैं, उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम उसे किस भाव-दशा में खाते हैं। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। आप क्या खाते हैं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह महत्वपूर्ण है कि आप किस भाव-दशा में खाते हैं। आप आनंदित खाते हैं, या दुखी, उदास और चिंता से भरे हुए खाते हैं। अगर आप चिंता से खा रहे हैं, तो श्रेष्ठतम भोजन के परिणाम भी पाय़जनस होंगे, जहरीले होंगे। और अगर आप आनंद से खा रहे हैं, तो कई बार संभावना भी है कि जहर भी आप पर पूरे परिणाम न ला पाए। इसकी बहुत संभावना है। आप कैसे खाते हैं, किस चित्त-दशा में?
हम तो चिंता में ही चौबीस घंटे जीते हैं। तो हम जो भोजन करते होंगे, वह कैसे पच जाता है यह मिरेकल है, यह बिलकुल चमत्कार है। यह भगवान कैसे करता है, हमारे बावजूद करता है यह। हमारी कोई इच्छा उसके पचने की नहीं है। यह कैसे पच जाता है, यह बिलकुल आश्चर्य है! और हम कैसे जिंदा रह लेते हैं, यह भी एक आश्चर्य है! भाव-दशा--आनंदपूर्ण, प्रसादपूर्ण निश्चित ही होनी चाहिए।
लेकिन हमारे घरों में हमारे भोजन की जो टेबल है या हमारा चौका जो है, वह सबसे ज्यादा विषादपूर्ण अवस्था में है। पत्नी दिन भर प्रतीक्षा करती है कि पति कब घर खाने आ जाए। चौबीस घंटे का जो भी रोग और बीमारी इकट्ठी हो गई है, वह पति की थाली पर ही उसकी निकलती है। और उसे पता नहीं कि वह दुश्मन का काम कर रही है। उसे पता नहीं, वह जहर डाल रही है थाली में।
और पति भी घबड़ाया हुआ, दिन भर की चिंता से भरा हुआ थाली पर किसी तरह भोजन को पेट में डाल कर हट जाता है! उसे पता नहीं है कि एक अत्यंत प्रार्थनापूर्ण कृत्य था, जो उसने इतनी जल्दी में किया है और भाग खड़ा हुआ है। यह कोई ऐसा कृत्य नहीं था कि जल्दी में किया जाए। यह उसी तरह किए जाने योग्य था, जैसे कोई मंदिर में प्रवेश करता है, जैसे कोई प्रार्थना करने बैठता है, जैसे कोई वीणा बजाने बैठता है। जैसे कोई किसी को प्रेम करता है और उसे एक गीत सुनाता है।
यह उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था। वह शरीर के लिए भोजन पहुंचा रहा था। यह अत्यंत आनंद की भाव-दशा में ही पहुंचाया जाना चाहिए। यह एक प्रेमपूर्ण और प्रार्थनापूर्ण कृत्य होना चाहिए।
जितने आनंद की, जितने निश्चिंत और जितने उल्लास से भरी भाव-दशा में कोई भोजन ले सकता है, उतना ही उसका भोजन सम्यक होता चला जाता है।
हिंसक भोजन यही नहीं है कि कोई आदमी मांसाहार करता हो। हिंसक भोजन यह भी है कि कोई आदमी क्रोध से आहार करता हो। ये दोनों ही वायलेंट हैं, ये दोनों ही हिंसक हैं। क्रोध से भोजन करते वक्त, दुख में, चिंता में भोजन करते वक्त भी आदमी हिंसक आहार ही कर रहा है। क्योंकि उसे इस बात का पता ही नहीं है कि वह जब किसी और का मांस लाकर खा लेता है, तब तो हिंसक होता ही है, लेकिन जब क्रोध और चिंता में उसका अपना मांस भीतर जलता हो, तब वह जो भोजन कर रहा है, वह भी अहिंसक नहीं हो सकता है। वहां भी हिंसा मौजूद है।
सम्यक आहार का दूसरा हिस्सा है कि आप अत्यंत शांत, अत्यंत आनंदपूर्ण अवस्था में भोजन करें। और अगर ऐसी अवस्था न मिल पाए, तो उचित है कि थोड़ी देर भूखे रह जाएं, उस अवस्था की प्रतीक्षा करें। जब मन पूरा तैयार हो, तभी भोजन पर उपस्थित होना जरूरी है। कितनी देर मन तैयार नहीं होगा? मन के तैयार होने का अगर खयाल हो, तो एक दिन मन भूखा रहेगा, कितनी देर भूखा रहेगा? मन को तैयार होना पड़ेगा। मन तैयार हो जाता है, लेकिन हमने कभी उसकी फिकर नहीं की है।
हमने भोजन डाल लेने को बिलकुल मैकेनिकल, एक यांत्रिक क्रिया बना रखी है कि शरीर में भोजन डाल देना है और उठ जाना है। वह कोई साइकोलॉजिकल प्रोसेस, वह कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं रही है। यह घातक बात है।
शरीर के तल पर सम्यक आहार स्वास्थ्यपूर्ण हो, अनुत्तेजनापूर्ण हो, अहिंसक हो और चित्त के आधार पर आनंदपूर्ण चित्त की दशा हो, प्रसादपूर्ण मन हो, प्रसन्न हो, और आत्मा के तल पर कृतज्ञता का बोध हो, धन्यवाद का भाव हो। ये तीन बातें भोजन को सम्यक बनाती हैं।
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मुझे भोजन उपलब्ध हुआ है, यह बहुत बड़ी धन्यता है। मुझे एक दिन और जीने को मिला है, यह बहुत बड़ा ग्रेटिट्यूड है। आज सुबह मैं फिर जीवित उठ आया हूं। आज फिर सूरज ने रोशनी की है। आज फिर चांद मुझे देखने को मिलेगा। आज मैं फिर जीवित हूं। जरूरी नहीं था कि मैं आज जीवित होता। आज मैं कब्र में भी हो सकता था, लेकिन आज मुझे फिर जीवन मिला है। और मेरे द्वारा कुछ भी कमाई नहीं की गई है, जीवन पाने को। जीवन मुझे मुफ्त में मिला है। इसके लिए कम से कम धन्यवाद का, मन में अनुग्रह का, ग्रेटिट्यूड का कोई भाव होना चाहिए।
भोजन हम कर रहे हैं, पानी हम पी रहे हैं, श्वास हम ले रहे हैं, इस सबके प्रति अनुग्रह का बोध होना चाहिए। समस्त जीवन के प्रति, समस्त जगत के प्रति, समस्त सृष्टि के प्रति, समस्त प्रकृति के प्रति, परमात्मा के प्रति एक अनुग्रह का बोध होना चाहिए कि मुझे एक दिन और जीवन का मिला है। मुझे एक दिन और भोजन मिला है। मैंने एक दिन और सूरज देखा। मैंने आज और फूल खिले देखे। आज मैं और जीवित था।
यह जो भाव है, यह जो कृतज्ञता का भाव है, वह समस्त जीवन के साथ संयुक्त होना चाहिए। आहार के साथ तो बहुत विशेष रूप से। तो ही आहार सम्यक हो पाता है।
हिंदुओं ने अन्न को ब्रह्म कहा है। जिन्होंने अन्न को ब्रह्म कहा है उन्होंने जरूर स्वाद लिया होगा। उन्होंने तुम जैसे ही भोजन न किया होगा। वे बड़े होशियार लोग रहे होंगे, बड़े कुशल रहे होंगे। कोई गहरी कला उन्हें आती थी कि रोटी में उन्होंने ब्रह्म को देख लिया। दुनिया में किसी ने भी नहीं कहा है अन्नं ब्रह्म। कैसे लोग थे! रोटी में ब्रह्म! जरूर उन्होंने रोटी कुछ और ढंग से खाई होगी। उन्होंने भोजन को ध्यान बना लिया होगा। वे भागे-भागे नहीं थे। वे जब भोजन कर रहे थे तो भोजन ही कर रहे थे। उनकी पूरी प्राण-ऊर्जा भोजन में लीन थी। और तब जरूर रूखी रोटी में भी वह रस है जिसको ब्रह्म कहा है। तुम्हें भोजन करना आना चाहिए।
उपनिषद कहते हैं–“अन्नं ब्रह्म।’ और ब्रह्म के साथ कम से कम इतना तो सम्मान करो कि होशपूर्वक उसे अपने भीतर जाने दो।
इसलिए सारे धर्म कहते हैं, भोजन के पहले प्रार्थना करो, प्रभु को स्मरण करो। स्नान करो, ध्यान करो, फिर भोजन में जाओ, ताकि तुम जागे हुए रहो। जागे रहे तो जरूरत से ज्यादा खा न सकोगे। जागे रहे, तो जो खाओगे वह तृप्त करेगा। जागे रहे, तो जो खाओगे वह चबाया जाएगा, पचेगा, रक्त-मांस-मज्जा बनेगा, शरीर की जरूरत पूरी होगी। और भोजन शरीर की जरूरत है, मन की जरूरत नहीं।
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जागे हुए भोजन करोगे तो तुम एक क्रांति घटते देखोगे कि धीरे-धीरे स्वाद से आकांक्षा उखड़ने लगी। स्वाद की जगह स्वास्थ्य पर आकांक्षा जमने लगी। स्वाद से ज्यादा मूल्यवान भोजन के प्राणदायी तत्व हो गये। तब तुम वही खाओगे, जो शरीर की निसर्गता में आवश्यक है, शरीर के स्वभाव की मांग है। तब तुम कृत्रिम से बचोगे, निसर्ग की तरफ मुड़ोगे।